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रस-रूप-गंध महोत्सव!

नन्हें डग, लम्बी डगर...
नन्हें डग, लम्बी डगर...
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ऐसा लगता है, कि मेरी बगिया में रोज़ रात को दबे-पाँव कोई आया करता है. चारों ओर फुलवारी पर रंगों की बौछार कर जाता है! है कोई तो, जो अपनी निराली-सी पिचकारी में अनोखे-से रंगों का गुलाल भर कर लाया करता है, और हर एक पत्ते को अपने सुकुमार स्पर्श के संग मृदु गीत गाकर सुला जाता है. मुस्कान की ओढ़नी ओढ़कर सोये ये फूल-पत्ते सुबह ओस की बूँदों से नहाए मिलते हैं. न कोई वाद्य-यंत्र है, तो भी मानो नृत्य कर रहे-से लगते हैं. अपने ही मन के गीत-संगीत पर थिरकते रहते हैं.
कहीं पीले रंग के पुष्प यूँ बिखरे हैं, मानो प्रकृति दूसरा कोई रंग जानती ही न हो. मेरी बगिया का वो कोना केवल पीत-वर्ण का ही दिखता है. वहीँ दूसरी ओर लाल रंग के फूलों का रूप देखा जाए, तो मंत्रमुग्ध! उन पर टपकी ओस की बिन्दुएँ तो जैसे रक्तिम आभा लिए किसी अलौकिक मणि का-सा भ्रम कराती हैं. गुलाबी रंग के फूलों का सौन्दर्य यहाँ कौन कम आँक सकता है! एक नज़र-भर से ही मन-मयूर झूम उठता है. जिस ओर भी दृष्टि जाती है, वहीँ सम्पूर्णता हर्षित होती दिखती है. इन दिनों धरती पर बिछा घास का कालीन भी इन्हीं रंगों के झूले में डोलता-सा प्रतीत होता है. बातों-बातों में, यों ही किसी से पूछा मैंने, कि ये मेरी बगिया में किसका किया-धरा हो सकता है? भला हर नवदिवस के साथ रंगों का ये सुरभित खेल, ये अनूठा मेल क्यों रचा जा रहा है, ओर वो भी चुपके-चुपके से? मुझे बताया गया, कि ‘वसंत-पंचमी’ आ रही है. इसी दिन के स्वागत में प्रकृति खिल रही है, झूम रही है, सज रही है. और सिर्फ मेरी ही क्यों, हर एक बगिया-बाग़ में ऐसा ही समायोजन हो रहा है, रंग, सुगंध और उल्लास का. समझते देर न लगी, कि ये तो स्वयं वसंत ही है, जो हर एक बगिया में जा-जाकर अपनी छाप छोड़ रहा है. रीति ही कुछ ऐसी रहती है इस नटखट-चंचल वसंत की! किसी को भनक भी न लगने दी, और अपने रंगों का फव्वारा चला दिया! ये वसंत, फूल-पत्ते, घास, सब मिलकर ऐसी योजना बनाये बैठे हैं, कि ठीक वसंत-पंचमी पर ध्वजा की तरह फ़हराने लगें ये रंगों की लहरें. कभी धीमी, तो कभी तेज़ हो जाती इन हवाओं में भी एक उन्माद अनुभव हो रहा है. वसंत ने अपना जादू हर दिशा पर चला दिया है. इतना-भर ही नहीं, सुरीले संगीत का भी प्रबंध किया गया है. स्वरों की रानी, कोयल ने संगीत-साधना प्रारंभ कर दी है. चुपके-चुपके से कहीं किसी आम के वृक्ष पर जा बैठी वो अपने प्रिय गीत गुनने का अभ्यास करती-सी लगती है.
एक अद्भुत आयोजन, जो बाग़-बगिया से लेकर मन की भूमि तक सब ओर छा जाने वाला है, ‘वसंत-पंचमी’ के रूप में बहुप्रतीक्षित है. आगंतुक तो सब अपने ही हैं. इसलिए, चिट्ठी-पाती तो किसी को विशेष रूप से नहीं भेजी जा रही है. पर आमंत्रित हर एक वो मन है, जिसे प्रकृति का विलास आकर्षित किया करता है. मेरे मन को हर एक पल वासंतिक सुगंध की, प्रसन्नता के मकरंद की चाह है. भव्यतम प्राकृतिक ‘रस-रूप-गंध महोत्सव’ का हार्दिक स्वागत है.

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