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मेरी सीख, मेरे लिए..

नन्हें डग, लम्बी डगर...
नन्हें डग, लम्बी डगर...
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विचारों से भरा रहता है ये मन! जहां कुछ विचार आया, वहीँ कलम उठ जाती है. और शब्दों के नए-नए डिब्बे जुड़कर बन जाती हैं, विचारों की नयी-नयी रेलगाडियां. कभी-कभी लिखते-लिखते अचानक हाथ ठिठकने लगते हैं. कारण कुछ बहुत बड़ा न होकर, बहुत मामूली-सा है. सर्दियों के प्रभाव से अंगुलियां बर्फ-सी हो जाती हैं.
यों ही, लिखते-लिखते दायाँ हाथ ज़रा रुक गया, तो ध्यान बाएँ हाथ की ओर चला गया. देखा, वो तो मज़े से गर्म दस्ताने में पड़ा सुस्ता रहा था! दो पल आराम कर के दायाँ हाथ तो फिर से मसरूफ हो गया अक्षरों और मात्राओं के मेल में! और इतने में ही कहीं से मनपसंद संगीत की लहरियाँ आने लगी. बाएं हाथ की अंगुलियां दस्ताने के भीतर ही मचलने लगी. हिल-हिल कर कुछ नृत्य-सा करने लगी. पर इस हलचल से बेखबर, दायाँ हाथ जुटा रहा विचारों को शब्दों का सांचा देने में. ये सब सोच कर, मुझे लगा, कि कितना मेहनतकश है मेरा दायाँ हाथ! और बायाँ हाथ, एक नंबर का आरामतलब! तो क्या ये सब देख कर, कभी मेरा दायाँ हाथ अपने जोड़ीदार से ईर्ष्या करता होगा? बिलकुल नहीं. और न ही मेरा बायाँ हाथ कभी अपनी मौजमस्ती से चिढ़ाने के लिए दायें हाथ को अँगूठा दिखता है. इतने विषम ढर्रे के बावजूद, दोनों हाथ बिलकुल पक्के दोस्त बनकर रहते हैं. पता है, क्यों? क्योंकि दोनों हाथ मेरे ही तो हैं! और मैंने इन्हें सिखाया ही नहीं है झगड़ना. मिल-जुल कर सब काम करना ही सिखाया है मैंने तो इन दोनों को. लेकिन इसका मतलब ये थोड़ा ही है, कि मैंने कोई महान कारनामा कर दिया. मुझे भली तरह पता है, कि ये दोनों मिलकर रहेंगे, तो मेरा ही जीवन आसान होगा. मेरे सामने कोई भी समस्या आ जाए, दोनों हाथ किसी न किसी तरह मुझे बचा ही लेंगे. इसलिए, मैंने उन्हें द्वेष का मन्त्र सिखाया ही नहीं है. और सच, सोचकर ही मन काँप रहा है, कि अगर कहीं से इन हाथों के कानों में द्वेष शब्द पड़ गया, तो इन दोनों की, और मेरी दशा कैसी होगी!
कामकाजी हाथ दूसरे के भाग्य से रश्क करेगा, और उसे नुकसान पहुंचाने के लिए योजना बनाएगा. हो सकता है, किसी और के हाथ से सांठगांठ ही कर ले, और वो दोनों मिलकर मेरे बाएं हाथ को चोटिल कर दें! बायां क्या चुप रह लेगा? थोडा घाव भरते ही वो भी चुपके से आक्रमण कर सकता है! दोनों हाथ आपस में गुत्थमगुत्था होने लगेंगे, तो मुझसे चुप कैसे रहा जायेगा? उन्हें चुप कराने की कोशिश की, तो मुँह भी उनका कोपभाजन होकर लहुलुहान हो जायेगा. और आखिर में मेरी दशा बिलकुल मेरे देश के जैसी ही हो जायेगी. रोम-रोम में घावों का ताण्डव होगा. द्वेष का एक नन्हा बीज क्या नहीं कर सकता! प्रेमपूर्वक रहने में ही समझदारी है. और इस वक्त, मैंने अपने दोनों हाथों को निर्देश दे दिया है, आपस में हाथ मिलाने का. समझदार जो हूँ!

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