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हर फ़िक्र को धुंए में…

नन्हें डग, लम्बी डगर...
नन्हें डग, लम्बी डगर...
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जिंदादिली का एक अनूठा दीपक आखिरकार शांत हो गया. एक सदाबहार अभिनेता, जिसे उम्र की कोई बंदिश कभी रोक न पायी, आखिरकार जीवन की यात्रा के चरम पर पहुँच ही गया. और अपने प्रशंसकों के लिए छोड़ गया एक रिक्तता, जिसे कभी कोई नहीं भर सकता. एक पूरा सुनहरा युग अपने बेजोड़ अभिनय, और निराले जीवन के ढंग से अपने नाम कर गए, ‘देव आनंद’. मैंने उस युग को खुद तो नहीं देखा है, पर सुना, पढ़ा, और जाना ज़रूर है.
बताया जाता है, कि कॉलेज में कर्फ्यू का माहौल हो जाता था, जिस दिन देव आनंद की नयी फिल्म रिलीज़ होती थी. उनकी फिल्मों का सुरूर ऐसा होता था, कि ‘फर्स्ट डे फर्स्ट शो’ न देख पाना युवाओं के लिए निराशा का कारण हो जाता था. और हर एक बार, प्रशंसकों की अपेक्षाओं पर खरे उतरना हर एक के बस की बात तो नहीं होती. पर देव आनंद का तो ये ख़ास शउर था. और बात अगर फ़िल्मी रील की ही होती, तो शायद इतनी बड़ी भी न होती. पर उनकी सक्रियता, संगीतमयता तो उनके जीवन के हर पहलु में नज़र आती थी. ‘हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाता चला गया’ गीत को अपने मस्तमौला अंदाज़ से अमर कर देने वाले देव आनंद सचमुच ज़िन्दगी का साथ निभाने वाले एक अनोखे कलाकार थे. उम्र के इस पड़ाव पर भी उनकी सृजनात्मकता थम नहीं पायी. व्यावसायिक असफलताओं के तो कुछ मायने ही नहीं थे उनके लिए. और इस तरह, उनका जीवन लगातार इसी भावना से भरा रहा, कि बाहरी शान से बहुत ज़्यादा मायने हैं अंदरूनी शान के. ‘शानदार जीवन’, ये शब्द तो बना ही जैसे देव आनंद के लिए है.
पर उनके निधन की खबर मिली, तो चंद शब्द जो सुने, मुँह से खुद ही निकल गया, कि उनकी मृत्यु भी कम शानदार नहीं थी. मालूम हुआ, कि अंतिम समय में उनके पुत्र उनके साथ थे. आज जिस दौर में हम जी रहे हैं, वहाँ बेगानों की कमी हो या न हो, अपनों की कमी होना एक आम बात है. और वृद्धाश्रमों की बढती संख्या तो इसका प्रकट प्रमाण है ही. नन्हे पौधे-सा एक बच्चा, जिसे प्रेम, और संरक्षण के जल से सींच कर एक सघन पेड़ बनाया होता है, अंतिम समय में उसकी छाया मिलना आज के युग में परम सौभाग्य से कम नहीं होता. बड़े होते-होते, उस पेड़ को शायद वो झुर्रीदार हाथ बदसूरत, और बुरे लगने लगते हैं. वो भूल गया होता है, कि अगर ये हाथ तब उसके साथ न होते, तो शायद वो पौधा बचपन में ही मुरझा गया होता. पर उस पेड़ की छाया की छाया से देव आनंद का अंतिम समय महरूम नहीं रहा. इससे ज्यादा खुशनुमा मृत्यु और क्या हो सकती है! ऐसे में, उनका सौभाग्य न केवल सराहनीय है, पर ईर्ष्या के भी योग्य लगता है, जिसमे सफ़र भी शानदार था, अंदाज़ भी शानदार, और अंजाम भी शानदार..!

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