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एक बहुत अजीब-सी बात है. कि ये बातें क्या होती हैं. बिना किसी बात के बातें शुरू हो जाती हैं. और बातों-बातों में ही, पता नहीं, कितनी बातें बन जाती हैं. कहते हैं, कि दुनिया का हर एक काम कहने में और करने में बड़ा फर्क होता है. सिवाय बातों के. बातें कहने और करने में कोई अंतर नहीं है. तब, क्या बातें करना इतना ही आसान है, जितना दीख रहा है? जवाब है, बिलकुल नहीं. अगर दोस्ती की शुरुआत बात करने से होती है, तो दोस्ती को अलविदा भी कहला सकती हैं ये बातें. यूं भी कहा जा सकता है, कि “सावधानी हटी, दुर्घटना घटी.”
बातों पर मेरे ये विचार दरअसल निष्प्रयोजन नहीं हैं. अपने आस-पास की बातें इस सब पर सोचने पर मजबूर किया करती हैं. बहुत बार हम लोग अपनी अक्षमताओं को छिपाने के लिए अपनी वाक्पटुता का आश्रय लेते हैं. ” देखा जाएगा-ऐसा कह देंगे-वैसा कह देंगे-बना लेंगे कोई कहानी..”, जैसे शब्द आम सुनाई देते हैं आस-पास में. सुनाई क्या देते हैं, हम ही तो बोल रहे होते हैं असल में..! इस सब से दूसरों का विश्वास जीतने की एक कोशिश होती है. सामने वाले का विश्वास जीत पाना वैसे कोई इतना मुश्किल काम नहीं होता. चार लच्छेदार बातें बनाई, और बस, हासिल कर ली विश्वसनीयता! लेकिन इस विश्वसनीयता को बनाये रखना कतई आसान नहीं है. वो लच्छेदार बातें एक-दो बार तो भरमा सकती हैं किसी को, पर एक सीमा के बाद बार-बार नहीं. अनुभव की बात है, कि वाक्पटुता से झूठ को सच तो कभी बनाया ही नहीं जा सकता. सिर्फ इतना है, कि अपने शब्दों के लपेटे से सामने वाले को ‘निरुत्तर’ कर देते हैं हम. पर ये सब तो वो बातें हैं, जो हम सभी के ही निजी अनुभव का हिस्सा हैं. कभी हम ऐसा कहने वाले बने होते हैं, तो कभी सुनने वाले की भूमिका निभा रहे होते हैं.
लेकिन ऐसा करते हुए हम दूसरों के मन में अपने प्रति सम्मान भी खो देते हैं. तब भी, हमारा इन बनावटी बातों के प्रति लगाव ख़त्म नहीं हो पाता. अब, मुझे तो दो ही कारण समझ में आते हैं, इस व्यवहार के. या तो हम सिर से लेकर पैर तक बनावटी हो चुके हैं, या फिर वाक्पटुता के उन्माद से ग्रस्त हो गए हैं, और वो भी, बिना ही उसका मर्म समझे. बनावटी ज़िन्दगी में चमक-दमक तो हो सकती है, पर खोखलेपन के साथ. और मेरे नज़रिए से, वाक्पटुता तो तभी सिद्ध कही जा सकती है, जब हमारे साथ बैठा व्यक्ति आयु का भेद भूल कर हमारा मित्र हो जाए. एक नन्हा बच्चा भी हमारे साथ बतियाते हुए, उतना ही आनंदित अनुभव करे, जितना कि एक वयोवृद्ध. पराये भी अपने बन जाएँ!
ज़मीन पर तो बहुतेरे लोग घर बना चुके हैं. किसी के मन में जगह बना पाना हर एक के बस की बात नहीं है..! क्यों न, वाक्पटुता से इसी लक्ष्य को साधा जाए..!
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